Sunday, September 8, 2024
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पहले विजेता को मिली थी जैतून की शाखा:हिटलर का प्रोपेगैंडा टूल थी ओलिंपिक मशाल रिले; चांदी का बना होता है गोल्ड मेडल

776 ईसा पूर्व यानी आज से करीब 2800 साल पहले। ग्रीस की ओलंपिया घाटी में जंगल के एक हिस्से को काटकर मैदान तैयार किया गया। बड़े से मैदान में केवल पैदल चलने वाला एक ट्रैक बनाया गया। ये तैयारियां एनिसिएंट ओलिंपिक के शुभारंभ के लिए हो रही थीं। तय हुआ कि ओलिंपिक का पहला खेल 192 मीटर की पैदल दौड़ होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि ग्रीक माइथोलॉजी के हीरो हरक्यूलिस बिना सांस लिए इतनी दूर तक दौड़ सकते थे। कुछ चुनिंदा दर्शकों के बीच पैदल दौड़ शुरू हई। होटल में खाना बनाने वाले एक शेफ कोरोएबस ने रेस जीत ली। फर्स्ट प्राइज में उन्हें गोल्ड मैडल नहीं, बल्कि जैतून के पेड़ की शाखा दी गई, क्योंकि यह ग्रीक लोगों की देवी का प्रतीक था। ‘ओलिंपिक के किस्से’ सीरीज के दूसरे एपिसोड में ओलिंपिक से जुड़ी ऐसी ही रोचक परंपराएं जानेंगे। कैसे जैतून की शाखा गोल्ड मेडल में बदली। ओलिंपिक ट्रूस कैसे देशों को लड़ने से रोकता है। ओलिंपिक मशाल की कहानी क्या है… ग्रीक माइथोलॉजी में शांति का प्रतीक था जैतून
मेडल्स, ओलिंपिक की वो परंपरा है जिसे हासिल करने के लिए दुनियाभर के खिलाड़ी हर चौथे साल में खेलों के इस महाकुंभ से जुड़ते हैं। प्राचीन ओलिंपिक में विजेता खिलाड़ियों को जीतने पर जैतून के पेड़ की एक शाखा दी जाती थी। ऐसा क्यों? इसका जवाब ग्रीक माइथोलॉजी में मिलता है। जैतून यानी ऑलिव के पेड़ का संबंध ग्रीक गॉड जीउस और थेमिस की बेटी इरिनी से जुड़ा है। शांति की देवी मानी जाने वाली इरिनी को हमेशा जैतून की शाखा के साथ ही चित्रित किया जाता है। इसके अलावा जैतून की शाखा को युद्ध की समाप्ति और शांति का प्रतीक भी माना जाता है। ग्रीक एम्पायर में जैतून का पेड़ धर्म के साथ-साथ आर्थिक और राजनीतिक महत्व भी रखता था। 6वीं शताब्दी के दौर में इसे संरक्षित करने के लिए कानून भी थे। यदि कोई व्यक्ति इस पेड़ को काट देता था, तो उसके लिए मृत्युदंड देने तक का कानून था। 1900 तक सिल्वर और ब्रॉन्ज मेडल ही दिया जाता था
ओलिंपिक विजेताओं को जैतून की शाखा देने की परंपरा मॉर्डन ओलिंपिक में भी जारी रही। 1896 में विजेताओं को मेडल के साथ जैतून की शाखाएं और डिप्लोमा भी दिए गए, लेकिन पहले ओलिंपिक में प्रतियोगिता के सिर्फ टॉप 2 एथलीट्स को ही सिल्वर और ब्रॉन्ज मेडल दिया जाता था। तीसरे स्थान पर आने वाला खिलाड़ी को खाली हाथ लौटना पड़ता था। 1900 के पेरिस ओलिंपिक तक यह स्थिति बनी रही। 1904 के लॉस एंजिल्स ओलिंपिक के साथ पहली बार गोल्ड मेडल दिए जाने की परंपरा की शुरुआत हुई। यह मेडल प्रतियोगिता में पहले स्थान पर आने वाले खिलाड़ियों को दिया जाता था। वहीं दूसरे और तीसरे स्थान पर आने वाले एथलीट को अब सिल्वर और ब्रॉन्ज का मेडल दिया जाने लगा। गोल्ड की शुरुआत पहले ओलिंपिक से क्यों नहीं हुई? इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि गोल्ड काफी महंगा होता था। इस कारण सोने से बना मेडल खिलाड़ियों को नहीं दिया जाता था। चांदी से बना होता है ओलिंपिक गोल्ड मेडल
1912 के स्टॉकहोम ओलिंपिक तक गोल्ड मेडल में 90% सोना और 10% अन्य धातु शामिल होती थीं। 1920 के एंटवर्प ओलिंपिक में ओलिंपिक गोल्ड बनाने की प्रक्रिया में बड़ा बदलाव देखने को मिला। इस आयोजन में विजेताओं को दिए गए गोल्ड मेडल्स में 92% चांदी थी। मात्र 6 ग्राम सोने से इसे पॉलिश करके सुनहरा बनाया जाता था। तब से लेकर अब तक गोल्ड मेडल इसी तरह से बनाए जाते हैं। सिल्वर मेडल में 92% सिल्वर और बाकी हिस्सा अन्य धातुओं का होता है। इसी तरह ब्रॉन्ज मेडल में कांसे के साथ तांबा और जिंक जैसी धातुओं को मिलाया जाता है। 26 जुलाई 2024 से पेरिस में ओलिंपिक शुरू हो रहे हैं। इस बार ओलिंपिक मेडल्स की बनावट में खास बदलाव किया गया है। इस बार जो मेडल विजेताओं को दिए जाएंगे उनमें पेरिस के ऐतिहासिक एफिल टॉवर के लोहे के टुकड़े भी मिलाए गए हैं। 135 साल पुराने एफिल टॉवर के 18 हजार से ज्यादा लोहे के एंगल्स से बनाया गया। इसका निर्माण एक मेले के लिए किया था। गुस्ताव एफिल के बनाए इस टॉवर की आयु मात्र 20 साल आंकी गई थी, लेकिन यह अब तक खड़ा हुआ है। जब आखिरी बार एफिल की रिपेयरिंग की गई तो कई लोहें के टुकड़ों को निकालकर अलग कर दिया गया। अब इन्हीं टुकड़ों को ओलिंपिक के मेडल्स में शामिल किया गया है। एक मेडल ऊपर भाग पर करीब 18 ग्राम लोहे से एक हेक्सागोन बनाया गया है। इसके अलावा मेडल के ऊपर लगने वाले रिबन पर भी विशेष ढंग से एफिल टॉवर की आकृति बनाई गई है। ओलिंपिक खेलों में मशाल जलाने की परपंरा 28 जुलाई 1928, मॉर्डन ओलिंपिक का आठवां संस्करण डच देश नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम में शुरू हुआ। ये ओलिंपिक महिलाओं के लिहाज से काफी खास था। इस आयोजन से पहली बार महिलाओं को एथलेटिक्स और ट्रैक एंड फील्ड गेम्स में उतरने का मौका मिला था। इस फैसले पर इंटरनेशनल ओलिंपिक कमेटी को मॉर्डन ओलिंपिक फाउंडर क्यूबर्टिन समेत कई लोगों की आलोचना भी झेलनी पड़ी। इसके बाद भी 1928 से महिलाओं के लिए शुरू हुए जो परंपरा जारी है। 1928 के ही ओलिंपिक से एक और चीज निकली जो आगे चलकर ओलिंपिक की खास परंपरा बनी। दरअसल एम्सटर्डम में ओलिंपिक स्टेडियम के ठीक सामने एक बड़े से टॉवर के ऊपर एक मशाल में आग जलाई गई। इसके पीछे कोई खास मकसद नहीं था, लेकिन यह लोगों को काफी पसंद आई। 1932 के लॉस एंजिल्स ओलिंपिक में भी एंट्री गेट पर इसी तरह की मशाल जलाई गई। नाजियों के प्रचार के लिए शुरू की गई थी ओलिंपिक टॉर्च रिले
1936 में ओलिंपिक हिटलर के देश जर्मनी की राजधानी बर्लिन में आयोजित हुए। इसकी तैयारी में जर्मनी 1931 से जुटा हुआ था। इसी साल बर्लिन खेलों के चीफ ऑर्गनाइजर कार्ल डायम ने जैसे-तैसे इंटरनेशनल ओलिंपिक कमेटी को मनाकर ओलिंपिक मेजबानी हासिल कर ली। 1933 में एडोल्फ हिटलर जर्मनी का चांसलर बना तो बर्लिन ओलिंपिक के भविष्य पर खतरा मंडराने लगा। हिटलर मॉर्डन ओलिंपिक यहूदियों और फ्रीमसन्स का खेल मानता था, लेकिन हिटलर यूनानियों पर भरोसा करता था। ऐसे में हिटलर तत्कालीन प्रोपेगैंडा मिनिस्टर ने उसे समझाया कि अगर ओलिंपिक से मशाल रिले निकाली जाती है तो वह नाजियों के दुनियाभर में प्रचार का टूल बनेगा। हिटलर को अपने मंत्री का सुझाव जम गया। कार्ल डायम नाजी पार्टी के सदस्य नहीं थे, लेकिन ओलिंपिक आयोजन के लिए उन्होंने मशाल रिले की बात मान ली। रिले के लिए एक हथियार बनाने वाली कंपनी से स्टील के विशेष मशाल तैयार करवाए गए। इसमें मैग्निशियम डाला गया जिसे किसी भी मौसम में जलाकर रखा जा सकता है। 20 जुलाई 1936 की दोपहर को ग्रीस के ओलंपिया में सूरज की तेज किरणों और पेराबॉलिक लेंस की सहायता से, ग्रीक देवी हेरा के मंदिर में एक बड़े से बाउल में आग जलाई गई। पहले मशाल बीयरर कोंस्टैंटिनोस कोंडिलिस ने इसी बाउल से मशाल को जलाया और 12 दिन की मशाल रिले की शुरुआत की। ग्रीस से मशाल बुल्गारिया, यूगोस्लाविया, हंगरी, ऑस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया होते हुए 3,000 किमी से ज्यादा की यात्रा की। 31 जुलाई 1936 की सुबह जर्मनी में करीब 50 हजार लोगों ने मशाल थामे फ्रिट्ज शिलगेन का स्वागत किया। शिलेगन ने स्टेडियम का और हिटलर के बॉक्स का चक्कर लगाकर, स्टेडियम के में बने बाउल को मशाल की आग से रोशन किया। इसके बाद बर्लिन ओलिंपिक की शुरुआत हुई। 1936 के बाद से ओलिंपिक से पहले मशाल या टॉर्च रिले निकालने की परंपरा बन गई जो आज भी है। टॉर्च से जुड़ा एक फैक्ट ये भी है कि रिले के दौरान धावक एक दूसरे को केवल फ्लेम शेयर करते हैं, जबकि टॉर्च अलग-अलग होती हैं। यह फ्लेम आज भी ओलंपिया से ही लाई जाती है। ओलिंपिक की ओपनिंग सेरेमनी में ग्रीस सबसे आगे क्यों चलता है?
टॉर्च रिले के बाद ओपनिंग सेरेमनी के साथ एथलीट की आधिकारिक एंट्री होती है। इसमें बारी-बारी से सभी देशों के खिलाड़ियों का दल सेरेमनी में हिस्सा लेते हैं। इस सेरेमनी में सबसे पहले ग्रीस के खिलाड़ियों के दल की एंट्री होती है। दरअसल, इसके पीछे की वजह ओलिंपिक के इतिहास से जुड़ी है। ओलिंपिक की शुरुआत पुराने दौर में ग्रीस के ओलंपिया में ही हुई थी। साथ ही 1896 के पहले मॉर्डन ओलिंपिक ग्रीस के एथेंस शहर में ही आयोजित किए थे। ग्रीस के सम्मान में ओलिंपिक में उन्हें सबसे पहले एंट्री करने का मौका दिया जाता है। परंपरा के मुताबिक ओलिंपिक का होस्टिंग देश सबसे बाद में एंट्री लेता है। इस बीच अन्य देश अल्फाबेटिकल ऑर्डर में एंट्री लेते हैं। 2004 में इस परंपरा को तोड़ा गया था। इस साल ग्रीस के एंथेस में ओलिंपिक खेल आयोजित किए थे। ओलिंपिक मेजबान होने के कारण इन खेलों में ग्रीस ने सबसे पहले एंट्री न लेकर सबसे बाद में एंट्री ली थी। ‘ब्लड इन द वॉटर’ इंसीडेंट के बाद शुरू हुई ओलिंपिक क्लोजिंग सेरेमनी
ओपनिंग सेरेमनी में जहां सभी खिलाड़ी अपने देश के अन्य खिलाड़ियों के साथ चलते हैं वहीं क्लोजिंग सेरेमनी खिलाड़ी अलग-अलग देशों के एथलीट के साथ मार्च करते हैं। 1956 के पहले तक क्लोजिंग सेरेमनी नहीं होती थी। 1956 के मेलबर्न ओलिंपिक में सोवियत यूनियन और हंगरी के बीच वॉटरपोलो गेम्स का सेमीफाइनल खेला जा रहा था। यह दौर शीत युद्ध का था। जर्मनी में नाजियों की हार के बाद हंगरी पर सोवियत यूनियन शासन करता था। वॉटरपोलो मैच के कुछ हफ्तों पहले ही सोवियत यूनियन की सेना ने हंगरी में पनप रहे छात्रों के विरोध के मजबूती से कुचल दिया था। इसमें कुछ छात्रों के मौत भी हो गई। ये छात्र सोवियत यूनियन की कम्यूनिस्ट विचारधारा का विरोध कर रहे थे। इसके चलते हंगरी के नागरिकों समेत खिलाड़ियों में भी इसके लिए गुस्सा था। जब मैच में दोनों टीमें सामने आईं तो खिलाड़ियों का गुस्सा निकलकर सामने आया। मैच के दौरान ही दोनों टीमों के खिलाड़ियों में मुठभेड़ हो गई। इसमें एक खिलाड़ी चोटिल हो गया, जिससे पूल में खून फैल गया। इस घटना को अखबारों में ‘ब्लड इन द वॉटर’ हेडलाइन के साथ छापा था। इस घटना के बाद जॉन विंग नाम के एक ऑस्ट्रेलियाई स्टूडेंट ने ओलिंपिक कमेटी को एक पत्र लिखते हुए सुझाव दिया कि आयोजन के अंतिम दिन एक क्लोजिंग सेरेमनी होनी चाहिए। इसमें सभी खिलाड़ी एक टीम की तरह चलेंगे, इससे खेल भावना का विस्तार होगा। यह सुझाव आईओसी को बेहतर लगा और इसी साल से क्लोजिंग सेरेमनी और खिलाड़ियों के साझा मार्च की शुरुआत हुई। क्या होता है ओलिंपिक से पहले लाया जाने वाला ओलिंपिक ट्रूस
युद्ध जैसी अप्रिय घटनाओं का प्रभाव ओलिंपिक पर न पड़े, इसके लिए अब प्रत्येक ओलिंपिक के पहले यूएन में ओलिंपिक ट्रूस या युद्धविराम प्रस्ताव पास किया जाता है। ओलिंपिक ट्रूस या युद्धविराम की शुरुआत एनिसिएंट ओलिंपिक के दौर में एलिस के राजा इफिटोस से मानी जाती है। वे हर चार साल में होने वाले ओलिंपिक खेलों के दौरान ग्रीस में होने वाले क्षेत्रीय संघर्षों से छुटकारा चाहते थे। ऐसे में उन्होंने युद्धविराम राजाओं के सामने युद्ध विराम का प्रस्ताव रखा। इस पर पीसा के राजा क्लीथस्थेनेस और स्पार्टा के राजा लाइकर्गस ने समर्थन जताया। इसके बाद अन्य राज्यों का भी समर्थन मिला और इस समझौते को एकेचेइरा नाम दिया गया। इसके तहत हर चार साल में ओलिंपिक के आयोजन से 7 दिन पहले से 7 दिन बाद तक युद्धविराम रहेगा, जिससे ओलिंपिक में शामिल होने वाले खिलाड़ी, दर्शक और कलाकार सुरक्षित आ-जा सकें। इसी परंपरा को 1992 में आईओसी ने अपनाया और 1993 में संयुक्त राष्ट्र ने ओलिंपिक ट्रूस का पहला प्रस्ताव पास किया। ओलिंपिक ट्रूस में देश ओलिंपिक शुरु होने के सात दिन पहले से ओलिंपिक समाप्त होने तक अपनी लड़ाई खत्म कर युद्धविराम की घोषणा करें। ओलिंपिक ट्रूस हर दो साल में ओलिंपिक और पैरालंपिक से पहले लाया जाता है। इस पेरिस ओलिंपिक से पहले यह प्रस्ताव लाया गया था, जिसमें सीरिया और रूस ने भाग नहीं लिया। 1988 से ओलिंपिक में फहराया जा रहा है एक ही झंडा
अन्य परंपराओं की तरह ओलिंपिक का पांच रंग-बिरंगे छल्लों वाला लोगो भी ओलिंपिक की पंरपरा का मजबूत हिस्सा है। इस लोगो को ओलिंपिक से जोड़ने का श्रेय मॉडर्न ओलिंपिक फाउंडर पियरे डि क्यूबर्टिन को जाता है। 1913 में क्यूबर्टिन ने ओलिंपिक समिति को एक पत्र लिखा। पत्र के ऊपरी हिस्से में पांच गोलकार छल्ले बने हुए थे। जो आपस में जुड़े हुए थे। हर छल्ले को एक अलग रंग दिया गया था। इसे क्यूबर्टिन ने अपने हाथ से बनाया था। अगस्त 1913 में जब ओलिंपिक कमेटी की बैठक हुई तो क्यूबर्टिन ने इस लोगो पर बात करते हुए बताया ये पांच छल्ले दुनिया के पांच हिस्सों अफ्रीका, अमेरिका, यूरोप और ओसियाना का प्रतिनिधित्व करते हैं। लोगो के पांच रंग और बैकग्राउंड का सफेद रंग दुनिया के सभी देशों की सहभागिता को दर्शाता है। 1920 के एंटवर्प ओलिंपिक में पहली बार इसी लोगो वाला झंडा स्टेडियम में फहराया गया। ओलिंपिक खत्म होने के बाद इस फ्लैग को एंटवर्प के मेयर ने अगले ओलिंपिक के होस्ट पेरिस के मेयर को सौंप दिया। यही फ्लैग को अगले होस्ट सिटी के मेयर को सौंपने की परंपरा शुरू हुई। 1984 के लॉस एजेंल्स ओलिंपिक के बाद इस फ्लैग को रिटायर्ड कर दिया गया। 1988 के सियोल ओलिंपिक से नया फ्लैग लाया गया। *** ‘ओलिंपिक के किस्से’ सीरीज के तीसरे एपिसोड में 28 जुलाई को जानिए कैसे ओलिंपिक का आयोजन विश्व युद्ध, हिटलर और शीतयुद्ध जैसी घटनाओं से प्रभावित हुआ… *** रेफरेंस- बुक रेफरेंस- **** ओलिंपिक सीरीज का पहला एपिसोड- ओलिंपिक में बिना कपड़ों के उतरते थे खिलाड़ी:सैनिक की मौत से जुड़ी मैराथन रेस; भारत में जन्मी पहली महिला विजेता

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