Tuesday, September 17, 2024
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भाला फेंकना सीखकर सास को भाला मारेगी क्‍या:लड़कियों को स्‍पोर्ट्स टूर्नामेंट लाई तो पेरेंट्स लड़ने आ गए; 80 बाल विवाह रोक चुकी हूं

‘2014 की बात है। मैं अपने स्‍कूल की लड़कियों को लेकर डिस्ट्रिक्ट बैडमिंटन टूर्नामेंट में पहुंची थी। कुछ लड़‍कियां काफी अच्‍छा खेलती थीं, स्‍कूल में हमने प्रैक्टिस भी काफी की थी। लड़कियां मैच शुरू होने का इंतजार ही कर रही थी कि बाहर से लोगों के चिल्लाने की आवाज आने लगी। मैं बाहर पहुंची। कई लड़कियों के पेरेंट्स आए और मुझे घेर लिया। चिल्‍लाने लगे- हमारे घर की लड़कियां ये सब नहीं करतीं, किससे पूछकर इन्हें यहां लेकर आईं? हमने तो इन्हें पढ़ने के लिए भेजा था, हमसे पूछना तो चाहिए था कि हम बच्चियों को खिलवाना चाहते हैं भी कि नहीं। पेरेंट्स इतने ताव में थे कि मुझे लगा ये लोग किसी भी वक्त मेरे साथ मारपीट कर सकते हैं। मैंने तुरंत खेल अधिकारी और प्रशासन के दूसरे लोगों को वहां बुला लिया। उन्हीं लोगों ने भीड़ से मुझे बचाया। गेम सेंटर से ज्यादातर लोग अपनी बच्चियों को वापस घर ले गए और फिर कई दिन तक स्कूल नहीं भेजा।’ आज मास्साब के तीसरे एपिसोड में कहानी बिहार के मधुबनी की टीचर मीनाक्षी कुमारी की। इन्‍होंने अपने स्कूल की लड़कियों को न सिर्फ शिक्षित करने की बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की ठानी है। मीनाक्षी ने अपने स्‍कूल की लड़कियों के लिए पीरियड्स हाईजीन, बाल विवाह, रक्तदान, खेल-कूद जैसी कई मुहिम छेड़ी हैं जिसके लिए उन्‍हें शिक्षक दिवस पर नेशनल अवॉर्ड दिया गया है। ‘सास को भाला मारेगी क्‍या, जो भाला फेंकना सिखा रहीं हैं’
दैनिक भास्‍कर से बात करते हुए मीनाक्षी बताती हैं, ‘उस साल मुझे अपनी लड़कियों को लेकर वापस लौटना पड़ा। अगले दिन से ही मैंने लड़कियों के घर जाकर उनके पेरेंट्स से बात करनी शुरू की। कुछ ने तो दरवाजे से ही लौटा दिया, मगर कुछ को बात समझ आई। स्‍कूल में फिर लड़कियों की प्रैक्टिस शुरू हुई। मेरी एक स्‍टूडेंट गुड़‍िया जैवलिन थ्रो (भाला फेंक) में काफी अच्‍छी थी। उसकी मां घरों में झाडू-पोंछे का काम करती थी। जब गुड़‍िया ने डिस्ट्रिक्‍ट लेवल पर गोल्‍ड जीता तो स्‍कूल में हम बहुत खुश हुए। उसे आगे स्‍टेट लेवल भेजने की तैयारी में लग गई। अगले दिन वो स्‍कूल ही नहीं आई। मैं समझ गई कि कुछ गड़बड़ है। गुड़‍िया के घर पहुंची तो उसकी मां ने उसे आगे खिलाने से साफ मना कर दिया। मुझसे बोलीं, ‘हमारी बच्‍ची नहीं खेलेगी, हमें कहीं नहीं भेजना। पहले आपने कहा कि पढ़ाना चाहिए, अब उसको खेल में उतार रही हो। बच्‍ची की शादी कैसे होगी। बच्‍ची ससुराल जाकर सास को भाला मारेगी क्‍या, जो उसे भाला फेंकना सिखा रही हो।’ बहुत समझाने पर भी वो नहीं मानीं। मैंने फिर भी गुड़‍िया को स्‍टेट लेवल गेम में भेज दिया। बच्‍ची ने स्‍टेट में भी गोल्‍ड जीता और नेशनल के लिए भी सिलेक्‍ट हुई। बच्‍ची के पिता दिल्‍ली में किसी के घर खाना बनाने का काम करते हैं। स्‍टेट में गोल्‍ड जीतने के बाद जब मीडिया वाले उनसे मिलने पहुंचे तो उन्‍हें मेडल की कीमत समझ आई।’ ‘हमारी बच्ची को भी सिखाइये, हमें भी अखबार में आना है’
मीनाक्षी बताती हैं, ‘अब मेरी बच्चियां कबड्डी, टेबल टेनिस में नेशनल लेवल तक खेलती हैं। एथलेटिक्स में जैवलिन थ्रो, शॉट पुट या डिस्कस में पिछले 10 सालों से मेरी बच्चियां हर साल नेशनल जाती हैं। मैं फिजिकल टीचर नहीं हूं लेकिन इन गेम्स के लिए ट्रेनिंग ली है, तो मैं खुद ही बच्चों को इसके बारे में बताती हूं। यूट्यूब देखकर सीखती हूं, फिर सिखाती हूं। ज्‍यादातर बच्‍चों के माता-पिता किसी के घर में बर्तन धोते हैं या किसी के यहां मजदूरी करते हैं। पहले उन्हें मनाने में बहुत मशक्कत करनी पड़ती थी। लेकिन अब पेरेंट्स और बच्चियां खुद मेरे पास आते हैं कि हमारी बच्ची को आप खेल में आगे बढ़ाइए, हमें भी अखबार में आना है। अब वो देखते हैं कि उन्हीं के पड़ोस की लड़की किसी गेम में गोल्ड जीत कर लाई है तो मोटीवेट होते हैं। ‘लड़कियां बदनामी कराती हैं, इसलिए जल्दी शादी करते हैं’
बात 2014 की है। मैं हर दिन क्लास में अटेंडेंस लेती थी, तो पता चलता था आए दिन लड़कियां कम होती जा रही हैं। दूसरी लड़कियों से पूछा कि फलां क्यूं नहीं आई, तो लड़कियां बताती कि उसकी तो शादी हो गई है। एक बच्‍ची पढ़ाई में तेज थी। अचानक स्‍कूल आना बंद कर दिया तो पता चला उसकी शादी हो गई है। मैं उसके माता-पिता से मिलने पहुंची। उसकी मां ने कहा, ‘शादी की तो उम्र ही थी। इस टाइम लड़कियां प्‍यार-मोहब्‍बत के चक्‍कर में पड़ जाती हैं तो बदनामी होती है। समय से शादी करा देना बहुत जरूरी है।’ एक दूसरी बच्‍ची की मां ने मुझसे कहा कि जवान लड़कियों के साथ छेड़खानी हो जाती है, तो भी बदनामी लड़की की ही होती है। इसलिए जल्‍दी ही शादी कर देते हैं। तब मैंने लड़कियों और उनके पेरेंट्स दोनों को समझाना शुरू किया। पहले लड़कियों को समझाया कि इस समय पढ़ाई ज्यादा जरूरी है। प्यार मोहब्बत के लिए पूरी उम्र पड़ी है। फिर पेरेंट्स को भी समझाया कि बच्‍चियों को अभी पढ़ने दें। बाल विवाह रोकती हूं तो पेरेंट्स पूरा रिस्क मेरे ऊपर डाल देते हैं। कहते हैं- कल को कोई भी ऊंच नीच हुई तो आपकी जिम्मेदारी होगी। मैं कहती हूं ठीक है आप मेरे ऊपर छोड़ दीजिए, देख लूंगी। बीते 5 सालों में 70-80 बाल विवाह रोक चुकी हूं। अब किसी बच्‍ची की शादी की बात भी चलती है तो वो खुद आकर मुझे बता देती हैं। मैं पेरेंट्स के पास जाती हूं, उन्हें पहले प्यार से समझाती हूं। नहीं मानते हैं तो कहती हूं कि देखिए हेल्पलाइन नंबर भी है मेरे पास, पुलिस का नंबर भी है और मीडिया वालों को भी बुला सकती हूं। प्यार से मान लीजिए वर्ना FIR करा दूंगी। पीरियड्स हाईजीन पढ़ाती हूं तो पेरेंट्स बेशरम कहते हैं
क्‍लास की अटेंडेंस लेते हुए ही मुझे समझ आया कि लड़कियां पीरियड्स के चलते भी कई-कई दिन स्‍कूल नहीं आतीं। सिर्फ इतना ही नहीं, बच्चियों में पीरियड्स हाईजीन की भी बड़ी कमी थी। इसलिए मैंने सबसे पहले तो स्‍कूल में सैनिटरी नैपकिन मशीन लगवाई। आस-पास के स्‍कूलों में भी नैपकिन मशीन लगवाईं। इसके लिए स्‍टेट बैंक ऑफ इंडिया से डोनेशन लिया। बच्चियों को इस दौरान साफ-सफाई रखने की क्‍लास दीं। कई लड़कियां इस बारे में बात करने में भी हिचकती थीं। मैंने समझाया कि जब लड़के दाढ़ी-मूंछ आने पर नहीं शरमाते तो हम क्‍यों शरमाते हैं। इस पर भी एक बार एक बच्‍ची की मां मुझसे मिलने स्‍कूल आईं। कहती हैं, ‘क्या मैडम आप मेरी बेटी को ये क्या सिखा रहीं हैं। वो अपने पापा से भी पीरियड्स के बारे में बात करती हैं। एकदम बेशरम बना रही हैं।’
मैंने उन्हें समझाया- आप बताएं कि जब आप घर में नहीं रहेंगी तब आपकी बेटी अपनी समस्या किससे कहेगी। या बेटी को मरने के लिए छोड़ देंगी क्या। ऐसे में अपने पिता, भाई को नहीं बताएगी तो किसको बताएगी। लेकिन ये आसान काम नहीं है। इस दौरान धमकियां भी मिलती हैं कि आप मेरे बच्चों को बर्बाद कर रही हैं, आपको छोड़ेंगे नहीं, देख लेंगे। पेरेंट्स को लगता है कि बच्चे उनके खिलाफ हो रहे हैं, तो मैं कहती हूं कि नहीं बच्चे अपने बारे में सोच रहे हैं। कोरोना काल में शुरू किया- खुद पढ़ो, औरों को भी पढ़ाओ
कोरोना काल में मैंने ‘खुद भी पढ़ो, औरों को भी पढ़ाओ’ अभियान शुरू किया। इसके तहत जो बच्चियां क्लास अटेंड करती थी उन्हें ही आसपास की दूसरी बच्चियों को पढ़ाने की जिम्मेदारी दी। लॉकडाउन के बाद जो बच्चियां स्कूल पढ़ने नहीं आईं या जिनका कहीं एडमिशन नहीं हुआ था, उनकी जानकारी दूसरी बच्‍चयिों से इकट्ठा की। इसके बाद स्कूल की टीचर्स ने घर-घर जाकर बच्चियों का एडमिशन कराया और उन्हें स्कूल लाने का काम किया। आज स्‍कूल में 1457 बच्चियां हैं। सीरीज के बाकी एपिसोड भी देखें
एपिसोड 1 – गांव की दीवारों को ब्‍लैकबोर्ड बनाया, चौराहों को क्‍लासरूम: अटेंडेंस के लिए पेरेंट्स को सम्‍मानित करते हैं माधव सर मध्‍य प्रदेश के दमोह जिले के लिधौरा गांव में हर चौराहे पर बच्‍चे पढ़ते हुए दिखाई देते हैं। किसी भी गली में घुस जाओ तो गली के आखिर में किसी दीवार पर गणित, साइंस के फॉर्मूले लिखे दिखेंगे। बच्‍चे घूमते-फिरते, दौड़ लगाते हुए इन्‍हें पढ़ा करते हैं। गली से गुजरता कोई शख्‍स बच्‍चों को रोकता और दीवार पर लिखा पढ़कर सुनाने को कहता है। बच्‍चे नहीं पढ़ पाते तो उन्‍हें बताता है। पूरा का पूरा गांव ही जैसे क्‍लासरूम बन गया है। पूरी खबर पढ़ें… एपिसोड 2 – 5वीं के बच्‍चों के ऑनलाइन एग्जाम, VR हेडसेट से लर्निंग: कभी फूस के छप्‍पर में बैठते थे, आज स्‍मार्ट TV से पढ़ते हैं बच्‍चे बिहार के कैमूर जिले के एक छोटे से गांव तरहनी में एक ऐसा स्कूल है, जहां बच्‍चे क्‍लासरूम में ही दुनियाभर के जानवरों से भरा जू यानी चिड़‍ियाघर घूम आते हैं। पूरे सोलर सिस्‍टम की सैर करते हैं और भागकर चांद को पकड़ लेते हैं। पूरी खबर पढ़ें…

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