Saturday, July 27, 2024
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रकस-1: 40 रुपए फीस बढ़ी तो विधानसभा पहुंच गए छात्र:मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा, 108 स्टूडेंट्स मरे; इंदिरा को लगानी पड़ी इमरजेंसी

अप्रैल की गुलाबी धूप में मुंह पर काली पट्टी और पीठ की तरफ हाथ बांधे एक हजार से ज्यादा लोगों की अगुआई करता एक शख्स चल रहा था। विरोध का ऐसा मौन जुलूस शायद ही किसी ने पहले देखा था। इस जुलूस में सिर्फ मुंह पर पट्टी बांधे एक हजार लोग ही नहीं थे, बल्कि पटना की सड़क पर खड़ा हर एक शख्स इस विरोध में मौन रूप से शामिल था। दिन था 8 अप्रैल, 1974। इस घटना के बाद ये खबर जब अखबार में छपी तो जंगल की आग की तरह पूरे देश में फैल गई। 9 अप्रैल को पटना के गांधी मैदान में एक लाख से ज्‍यादा लोग जमा हुए। आज तक के इतिहास में गांधी मैदान में इतनी भीड़ नहीं जुटी थी। मंच से 72 साल के एक नेता ने कहा, ‘भ्रष्‍टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना और शिक्षा में क्रांति लाना जरूरी है, जो मौजूदा सरकार नहीं कर पा रही है क्‍योंकि ये सब इनकी सरकारी व्‍यवस्‍था की ही उपज है। ये तभी बदल सकती हैं जब पूरी व्‍यवस्‍था ही बदल दी जाए। पूरी व्‍यवस्‍था बदलने के लिए संपूर्ण क्रांति जरूरी है।’ ये नेता थे जयप्रकाश नारायण, जिन्‍हें इस भाषण के बाद लोकनायक की उपाधि दी गई। उन्होंने महात्मा गांधी के समय असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया, अंग्रेजों के खिलाफ लड़े, जेल गए और फिर छात्र आंदोलन का चेहरा बने। देश के इतिहास में 1973-75 का छात्र आंदोलन सबसे बड़े आंदोलनों में से एक है। गुजरात के एक कॉलेज से शुरू हुए विरोध ने पहले गुजरात की सरकार गिराई और आगे चलकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सत्‍ता को भी हिला दिया। 73 दिन के इस आंदोलन के दौरान 310 लोग घायल हुए और आधिकारिक डेटा के अनुसार 108 छात्रों की मौत हुई, जिसमें 88 लोगों की मौत पुलिस फायरिंग में हुई। इसमें 61 छात्र शामिल थे और सभी 30 साल से कम उम्र के थे। इस आंदोलन का ही परिणाम था कि आजाद भारत में पहली बार 1977 में गैर कांग्रेसी सरकार बनी। गुजरात के एक कॉलेज से भड़की आंदोलन की चिनगारी बात 12 दिसंबर 1973 की है। गुजरात के मोरबी इंजीनियरिंग कॉलेज में मेस की फीस 20% बढ़ा दी गई। इसके खिलाफ कॉलेज के छात्रों ने प्रदर्शन और लेबोरेटरी में तोड़फोड़ कर दी। कॉलेज ने 40 स्‍टूडेंट्स को सस्‍पेंड करके कॉलेज बंद कर दिया। एक सप्‍ताह बाद 20 दिसंबर को अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई इंजीनियरिंग कॉलेज में भी छात्रों का प्रदर्शन शुरू हो गया। सरकार ने छात्रों के प्रदर्शन को कुचलने की कोशिश की। 3 जनवरी 1974 को छात्रों पर लाठीचार्ज किया गया और 326 छात्रों को ग‍िरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद कई कॉलेजों के स्‍टूडेंट्स साथ मिलकर मुख्‍यमंत्री चिमनभाई पटेल से मिले, मगर बातचीत का कोई हल नहीं निकला। जनता पहले ही तेल की बढ़ती कीमतों और महंगाई का दंश झेल रही थी। जब मेस की फीस बढ़ी तो छात्रों का गुस्सा और भड़क गया। 8 जनवरी को छात्रों ने कॉलेज और स्कूल तीन दिन के लिए बंद करने की घोषणा की। ये खबर पूरे शहर में फैल गई। इसके बाद 14 अलग-अलग तरह के यूनियन, श्रमजीवी समिति और राजनीतिक पार्टियां इस आंदोलन में शामिल हो गईं। छात्र आंदोलन अब सामाजिक आंदोलन बन चुका था। प्रदर्शन में महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे उठने लगे। जब सरकार ने लगातार प्रदर्शनों को दबाने की कोशिश की, तो मांग मुख्‍यमंत्री चिमनभाई पटेल के इस्‍तीफे तक पहुंच गई। 22 जनवरी को चिमनभाई ने प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर लाठीचार्ज करा दिया, जिसके बाद आंदोलन की आग और भड़क गई। लेखक जॉन आर वुड अपने एक लेख में लिखते हैं, ‘अचानक इतना बड़ा विरोध लोगों के संघर्ष का नहीं बल्कि बड़े सामाजिक मुद्दों जैसे बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी का असर था। जो सरकार बना सकता है, वो सरकार को गिरा भी सकता है।’ छात्र आंदोलन ने गिराई गुजरात की सरकार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लगा कि विरोध बढ़ रहा है, तो 9 फरवरी को उन्होंने गुजरात की विधानसभा भंग कर दी और चिमनभाई से इस्तीफा ले लिया। मगर इससे इंदिरा गांधी की समस्‍या कम नहीं हुई। छात्र आंदोलन की इस कड़ी में एक सिरा बिहार से भी पिरोया जा रहा था। पटना में 17-18 फरवरी के दरमियान 70 यूनिवर्सिटी के 250 प्रतिनिधियों ने एक मीटिंग की और अपनी 8 मांगें तैयार कीं। ये 8 मांगे थीं – 1. बिहार के सभी कॉलेजों में छात्र संघ बनाए जाएं। 2. ऐसी शिक्षा मिले जो रोजगार दे पाए। 3. शिक्षित बेरोजगार छात्रों को व्यवसाय के लिए लोन दिया जाए। 4. छात्रों को बेरोजगारी भत्ता दिया जाए। 5. छात्रों को कम कीमत में राशन, किताबें और स्टेशनरी दी जाए। 6. बिहार के सभी कॉलेज में हॉस्टल की व्यवस्था हो। 7. छात्रों को दिए जाने वाले भत्ते बढ़ाएं जाएं। 8. सीनेट, सिंडिकेट और एकेडमिक काउंसिल में छात्रों को जगह दी जाए। 18 मार्च को ही चार-पांच सौ छात्रों ने बिहार विधानसभा का घेराव किया। जब राज्यपाल विधान मंडल के दोनों सदनों को संबोधित करने जाने वाले थे, उसी समय छात्रों ने राशन की बढ़ती कीमतों के खिलाफ पटना में अपना आंदोलन शुरू कर दिया। इसमें धरना प्रदर्शन करने से छात्रों को रोका गया और लाठीचार्ज किया गया, इसके बाद खबर फैल गई कि 10 छात्र मारे गए हैं। छात्रों पर लाठीचार्ज और 5 जिलों में कर्फ्यू प्रदर्शन के दौरान बिहार छात्र संघ अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव, सुशील कुमार मोदी और रविशंकर को गिरफ्तार कर लिया गया। इन्हें पुलिस ने रोकने की कोशिश की और आंसू गैस छोड़ी जिसमें कई छात्र नेता घायल हुए। इसके बाद बिहार के समस्तीपुर समेत पांच जिलों में कर्फ्यू लग गया और 10 लोगों के मरने की बात फैल गई। जब छात्र आंदोलन में अराजकता फैल गई और हर तरफ माहौल बिगड़ने लगा, तब छात्रों ने जयप्रकाश नारायण को इस आंदोलन की कमान संभालने के लिए बुलाया। छात्र आंदोलन में जननायक जेपी की एंट्री जयप्रकाश नारायण आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने वाले सेनानियों में से एक थे। हालांकि आजादी के बाद उन्‍होंने कोई राजनीतिक पद नहीं लिया और पूरी तरह खुद को विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से जोड़ लिया था। 21 मार्च को छात्रों ने पूरे राज्य में ‘छात्र संघर्ष समिति बनाई’ और 23 मार्च को छात्र संगठन के नेताओं ने जेपी से अनुरोध किया कि वो इस आंदोलन का नेतृत्व करें, लेकिन उन्होंने इसे टाल दिया। हालांकि छात्रों पर हुए अत्याचार की उन्होंने निंदा की। इसके बाद 8 अप्रैल छात्र आंदोलन के लिए एक ऐतिहासिक दिन रहा। पटना में मौन जुलूस निकाला गया। मुंह पर काली पट्टी और हाथ पीछे की तरफ बंधे थे, तख्तियों पर लिखा था ‘हमला चाहे जैसा हो, हमारा हाथ नहीं उठेगा’। इस जुलूस में छात्र, वकील, साहित्यकार, सर्वोदयी कार्यकर्ता सभी शामिल हुए। अखबारों में जब ये खबर छपी तो आंदोलन ने नई करवट ली। 9 अप्रैल को पटना के गांधी मैदान में जेपी ने भाषण दिया, जिसके बाद छात्रों ने उन्हें लोकनायक घोषित कर दिया। जेपी ने इस भाषण में कहा, ‘ये शांतिपूर्ण आंदोलन की शुरुआत है और इसके आगे हमें सत्याग्रही की भूमिका में काम करना होगा। एक सरकार के जाने और दूसरी के आने भर से काम नहीं चलेगा। हमें तो समाज की बीमारियों की जड़ में जाना है। मैं सत्ता की राजनीति से अलग रहूंगा।’ गया में छात्रों पर चली गोलियां जेपी ने बढ़ती महंगाई को लेकर इंदिरा गांधी के खिलाफ लड़ाई शुरू की। उन्होंने इंदिरा गांधी को पत्र लिखा और लोकपाल नियुक्त करने की मांग भी की। मगर 12 अप्रैल को गया में पुलिस ने आंदोलन कर रहे छात्रों पर गोलियां चला दीं जिसमें 5 छात्र मारे गए और 25 घायल हुए। इस घटना ने छात्र आंदोलन को और तेजी दे दी। 23 अप्रैल को जेपी ने ‘यूथ फॉर डेमोक्रेसी’ की बात कही। सभी छात्रों को एक साल के लिए सभी यूनिवर्सिटी और स्कूल का बहिष्कार करने को कहा। जेपी ने दो शर्तें रखीं। पहला कि पूरा आंदोलन शांतिपूर्ण ढंग से होगा और दूसरा कि सभी मेरी बात मानेंगे। ट्रक भरकर पहुंचे विधानसभा भंग करने के एप्‍लिकेशन 5 जून 1974 को पटना में ऐतिहासिक जुलूस निकाला गया। इसमें सबसे आगे लाखों लोगों के साइन किए एप्लिकेशन से भरा एक ट्रक था। इसमें जेपी के साथ छात्रों का एक बड़ा जुलूस था जिसने राज्यपाल को विधानसभा भंग करने का ज्ञापन दिया। मगर गोलियां चलाकर प्रदर्शनकारियों को खदेड़ दिया गया। जेपी ने अपने भाषण में कहा, ‘ये क्रांति है मित्रों और संपूर्ण क्रांति है, ये कोई विधानसभा खत्म करने का आंदोलन नहीं है। वह तो एक मंजिल है जो रास्ते में है। आज सत्ताईस-अट्‌ठाईस साल के बाद का जो स्वराज्य है उससे जनता कराह रही है। भूख है, महंगाई है। बगैर रिश्वत के कोई काम नहीं निकलता है।’ इस घटना के बाद भी आंदोलन की धार धीमी नहीं पड़ी। आखिरकार, 7 जुलाई को बिहार विधानसभा स्थगित कर दी गई। क्या बदला इस आंदोलन से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी लगातार हो रहे विरोध प्रदर्शन से परेशान थीं। इसी बीच 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनावों में सरकारी मशीनरी के इस्‍तेमाल का दोषी मानते हुए उनके चुनाव को रद्द कर दिया। इसी दिन गुजरात में हुए चुनावों के नतीजे भी जारी हुए, जिसमें कांग्रेस को पहली बार हार का सामना करना पड़ा। हर तरफ से घिरती इंदिरा गांधी ने आखिरकार 25 जून की आधी रात को देश में आपातकाल लगाने की घोषणा कर दी। इमरजेंसी के समय एक नारा बहुत चला, ‘इमरजेंसी के तीन दलाल, संजय, शुक्ला, बंसीलाल।’ दरअसल, इमरजेंसी के समय इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी को अघोषित प्रधानमंत्री कहा जाता था। वहीं, बंसीलाल तब देश के रक्षा मंत्री और विद्याचरण शुक्ल रक्षा राज्यमंत्री थे। माना जाता था कि इंदिरा को देश में आपातकाल लगाने का आइडिया इन्‍हीं तीनों ने दिया था। इमरजेंसी लागू होते ही जेपी समेत सभी विपक्ष के नेता जेलों में डाल दिए गए। छात्र संघ अध्यक्ष लालू यादव, नीतीश कुमार और सुशील मोदी भी गिरफ्तार कर लिए गए। 21 महीनों बाद 1977 में इमरजेंसी खत्‍म हुई और इंदिरा गांधी ने चुनावों का ऐलान कर दिया। चुनाव में कांग्रेस राजस्थान के अलावा सारी सीटें हार गई और देश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी। सभी विपक्षी पार्टियों के गठबंधन ने देश में सरकार बनाई जिसमें मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। जेपी बोले- हमको कौन पूछता है जेपी छात्र आंदोलन से सत्ता बदलने तक बहुत बड़ी भूमिका में रहे। मगर वो नई सरकार से भी खुश नहीं थे। 5 जून 1978 को उन्‍होंने एक भाषण में कहा था- नई सरकार भी कांग्रेस सरकार के तर्ज पर ही चल रही है। शिवानंद तिवारी बताते हैं, ‘1977 में जब सामयिक वार्ता मैगजीन हमने शुरू की थी, तब किशन पटनायक उसके संपादक थे। पहले इश्यू में, मैं, किशन पटनायक और अशोक सेक्टरिया थे। हम जब जेपी का इंटरव्यू लेने गए तो पूछा कि आपसे सरकार सलाह-मशवरा करती है, तो उन्होंने कहा ‘हमको कौन पूछता है।’ उनके आखिरी समय को याद करते हुए शिवानंद कहते हैं, ‘उनकी मृत्यु के 3-4 दिन पहले जब मैं उनसे मिला था तो पटना में उनके साथी रहे गंगा बाबू और मैं साथ थे। तब उन्होंने संस्कृत में एक मंत्र पढ़ा, जिसका अर्थ था कि धुआं निकल रहा है, इससे अच्छा ये होता कि ये अग्नि जलती रहती और सब कुछ भस्म हो जाता।’ जब जेपी ने मांगी थी छात्र नेता शिवानंद से माफी छात्र आंदोलन को करीब से देखने और उसमें अहम भूमिका निभाने वाले शिवानंद तिवारी, जेपी से अपनी पहली मुलाकात याद करते हुए बताते हैं, ‘मैं जब पहली बार उनसे मिला तो मैंने उन्हें भोजपुरी में प्रणाम करते हुए कहा, ‘हमार नाम शिवानंद बा’। ये सुनते ही उन्होंने मुझे कमरे से बाहर कर दिया। मैं समझ नहीं पाया कि आखिर मैंने ऐसा क्या किया जो मुझे निकाल दिया गया। कमेटी की एक मीटिंग में मुझे इस तरह निकाला जाना मेरे लिए हैरानी की बात थी।’ उनकी दूसरी मुलाकात जेपी से तब हुई, जब सर्वोदय आंदोलन के बड़े नेता भवेशचंद्र छात्र आंदोलन के बीच एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। उस समय तक शिवानंद छात्र आंदोलन से जुड़ी संचालन कमेटी के सदस्य थे। शिवानंद कहते हैं, ‘इस बार जब मैं जेपी से मिला, तो उन्होंने सबसे पहले मुझे देखा और मुझे देखते ही उनके माथे पर शिकन उभरी। फिर हाथ जोड़कर बोले, ‘मैं शिवानंद से माफी मांगना चाहता हूं।’ इस पर मैं बहुत शर्मिंदा हुआ, मैंने कहा कि आप मुझसे माफी मांगेंगे तो मुझे पाप लगेगा।’ दरअसल, मेरे पिताजी (रमानंद तिवारी) 1952 में उनके कहने पर ही सोशलिस्ट आंदोलन से जुड़े थे और मेरे पिताजी अक्सर उन्हें कहा करते थे कि मेरा बेटा बदमाश है। पिताजी की नजर में ‘मैं एक गुंडा’ था। इसी के चलते जेपी ने मुझे कमरे से निकाल दिया था।’

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